परिवर्तित परिवेश को दिखावे का युग कहना कदापि अनुचित न होगा। पुरातन भारतीय जन जीवन का अभिन्न अंग रही सादगी बदलाव की इस बयार में जैसे कहीं सिमटने लगी है। भौतिकवाद के प्रदर्शन की अंधी होड़ ही तो है, जो नैसर्गिक प्रसन्नता तक कृत्रिम साधनों में तलाशती फिरती है। सनातन संस्कृति के अनुसार, सोलह संस्कारों में से एक ‘विवाह संस्कार’ की ही बात लें; दो परिवारों को जोड़ने की यह पुनीत रस्म भी भला कहां सामयिक परिवर्तन के स्पर्श से अछूती रह पाई!
शादियों पर जमकर खर्च करने का चलन
कभी सादे समारोह में दुल्हन को भावभीनी विदाई देने में यक़ीन रखने वाले भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अब शादियों पर जमकर पैसा लुटाने में गर्व अनुभव करता है। इसी के दृष्टिगत किया गया एक अध्ययन, देश में औसत शादी का खर्च 36-37 लाख रुपये पर पहुंचने का ख़ुलासा करता है। भारत में विवाह उद्योग का बढ़ता बाज़ार देखें तो 130 बिलियन डॉलर के साथ फूड और ग्रॉसरी के बाद यह दूसरे नंबर पर है। निवेश बैंकिंग और पूंजी बाज़ार फर्म जेफ़रीज की रिपोर्ट के तहत, भारतीय विवाह बाज़ार अमेरिकी बाज़ार से दोगुना है।
खर्च बढ़ने के प्रमुख कारण
शादियों में खर्च बढ़ने का प्रमुख कारण वर्ष-दर-वर्ष क़ीमतों में 10 फ़ीसदी इज़ाफ़ा होना है। शादी के वेन्यू से लेकर केटरिंग तक का खर्च तुलनात्मक रूप में पहले से काफी बढ़ा है। इन खर्चों को बढ़ाने में प्री-वेडिंग इवेंट अथवा डेस्टिनेशन वैडिंग के नाम पर नवनिर्मित रस्में भी पीछे नहीं। वहीं शादी को शाही टच देने की मंशा से लोग ख़ास वेडिंग प्लानर से लेकर इवेंट मैनेजमेंट एजेंसियों की मदद ले रहे हैं। जस्ट डायल की एक रिपोर्ट महानगरों में विवाह सेवाओं की मांग में 34% वृद्धि होने का तथ्य उजागर करती है।
ज्यादा मेहमान, ज्यादा खाना
कुछ लोगों ने तो मानो विवाह समारोह रैलियों में ही तब्दील कर डाले हों। मेलजोल के बड़े दायरे का रोब झाडऩे की मंशा से अधिकाधिक मेहमान बुलाए जाते हैं। भोजन के नाम पर इतने व्यंजन कि खाया कम जाता है, बर्बाद अधिक होता है। आमंत्रण में अपनत्व की भावना समाप्त होती जा रही है। रिश्ते व विवाह संस्कार जैसे मांगलिक कार्य भी भौतिक सोच के तराजू पर तोले जाने लगे हैं। नि:संदेह, इसे सामाजिक मूल्यों का पराभव कहेंगे।
असमानता को बढ़ावा
सम्पन्नता की प्रदर्शनकारी होड़ का सर्वाधिक खमियाजा भुगतते हैं, समाज के आमजन। सीमित आय में सुयोग्य वर-वधू ढूंढना अथवा विवाह करना कठिन जान पड़ता है। वैवाहिक रस्मों के नाम पर बढ़ते आडंबरों ने पहले से ही मौजूद अमीरी-ग़रीबी की खाई को और गहरा कर दिया है। सादे समारोह को प्राथमिकता देने वाले अनेक युवा हालांकि इस दिशा में अनुकरणीय पहल कर रहे हैं किंतु इसके लिए समाज के एक बड़े भाग को प्रगतिशील सोच विकसित करनी होगी।
धन का सदुपयोग करने का संकल्प
वास्तव में विवाह दो आत्माओं एवं दो परिवारों के सुखद मिलन से जुड़ा पवित्र संस्कार है, जिसे आत्मीय जनों के साथ मिलकर मानवीय व सामाजिक मूल्यों की मर्यादा का भान रखते हुए सादगीपूर्वक सम्पन्न करना चाहिए। खून-पसीने की कमाई मिथ्या प्रदर्शन पर लुटा देने में भला क्या समझदारी? मांगलिक समारोह में सुनियोजित ढंग से धन का सदुपयोग करने का संकल्प विकसित किया जाए तो समाज को दिशा-ज्ञान देने में यह एक सराहनीय उदाहरण साबित हो सकता है।